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मज़ाक:एक दर्द (लघुकथा)

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मज़ाक : एक दर्द  (लघुकथा) पोस्ट संख्या -54   आज भी वे दिन याद हैं ,जब हम सब एक स्कूल में भर्ती हो गये तो बस वहीं के हो कर रह गये।जिस कक्षा तक स्कूल में पढ़ाई होती थी ,उसी कक्षा तक हम उस स्कूल में पढ़ते थे।नई कक्षा में ही नए स्कूल में दाखिला लेते थे और स्कूल शिक्षा पूरी करके ही स्कूल छोड़ते थे। स्कूल स्कूल नहीं लगता था, बल्कि एक परिवार एवं मंदिर, गुरुद्वारे जैसा लगता था।शायद यही कारण था कि उस जमाने में भी माता-पिता अनपढ़ होते हुए भी शिक्षित सा ही व्यवहार करते थे। चाहे बच्चों की छोटी-छोटी  जिद्द कभी-कभी तो मान लेते थे,लेकिन स्कूल का नया सैशन आरंभ होने के बाद बीच सत्र में बच्चों का कभी भी स्कूल बदलते नहीं थे।वे माता-पिता स्कूल एवं शिक्षकों का महत्व समझते थे । बच्चों का भला-बुरा समझते थे। बच्चों को भी मां -बाप का डर और शिक्षकों, सहपाठियों और अपने स्कूल से लगाव होता था।तभी आठवीं, दसवीं, बारहवीं पास करके ही स्कूल के बाद कालेज यां अन्य व्यवसाय में जिंदगी के बाकी पल बिताते थे।आज हास्यस्पद स्थिति बन गई है।दाखिला बढ़ाने का प्रपंच सबके भीतर घुन की तरह लग गया है।बड़ी मछली छोटी क...