मोहरा (कविता)
मोहरा (कविता)
पोस्ट संख्या -57मेरी उड़ान सीमित
नहीं है मेरे तक
मेरा सुकून भी
सिर्फ मेरा नहीं
मेरी जद्दोजहद भी मेरी नहीं
न चाहत हैं कुछ पाने की
न खोने का डर अब
बस एक भ्रम था कि
मैं हक से कुछ कह पाऊँ
आँख खुली तो
वह भी टूट गया
जो गहरा था भीतर प्याला
पलकों के कोरों से बह गया
आज फिर झूठा अपनापन
एक बार फिर मन को
खालीपन से भर गया
अब चुप रहना है मुश्किल
इक मोहरा बनना है मुश्किल!!
डॉ.पूर्णिमा राय, पंजाब
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