पर्यावरण बनाम मानव जीवन
पर्यावरण बनाम मानव जीवन
पोस्ट संख्या -59
आज का युग औद्योगिक करण आधुनिकता एवं तकनीकी विकासवाद का युग है जिसमें सर्वत्र मैं ,मेरी का ही बोलबाला है, जहाँ इंसान अपने सामाजिक संबंधों एवं सामाजिक सरोकारों को ही धूमिल करता जा रहा है, वहाँ पर्यावरण के प्रति वह अपना कर्तव्य निभाये, यह हास्यस्पद लगता है। पर प्रश्न उठता है कि अगर पर्यावरण ही ना शुद्ध रहा, स्वच्छ ना रहा तो सर्वत्र गंदगी व अनैतिकता की दीवारें ही दिखाई देंगी। इस पर्यावरण के प्रति सचेत करवाने का प्रयास सदैव किया जाता रहा है ।5 जून 1973 को प्रथम विश्व पर्यावरण दिवस मना कर विश्व स्तर पर सामाजिक जागृति और राजनीतिक चेतना लाने का सुप्रयास किया गया। आज आवश्यकता है --हर वर्ष नहीं बल्कि हर एक दिन पर्यावरण सुधार व बचाव के प्रति प्रत्येक बालक, युवा ,वृद्ध एवं सभ्यजन को सुसंस्कृत किया जाए। भारत में पर्यावरण संरक्षण अधिनियम सर्वप्रथम 19 नवंबर 1986 को लागू किया गया ।अपने साहित्य में दृष्टिपात किया जाए तो सदियों से पर्यावरण संरक्षण में लेखन की लेखनी ने प्रशंसनीय योगदान दिया है। सर्वत्र प्रकृति की स्वच्छता हमें जीवन के उज्जवल भविष्य की ओर अग्रसर करती है। यदि प्रकृति और मानव निर्मित सजीव और निर्जीव वस्तुओं में संतुलन न रहे तो पर्यावरण को नुकसान होता है। वैज्ञानिकता के प्रचार-प्रसार, औद्योगिकता, आबादी के बढ़ाने वाहन प्रयोग ,रसायन सामग्री एवं मिट्टी का क्षरण आदि से वातावरण को हानि हो रही है एवं जीवन कठिन हो रहा है।
"एक तंदुरुस्ती हजार नियामत है" अगर पर्यावरण स्वच्छ हुआ तो ही आज के समय में स्वस्थ शरीर रहेंगे, स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन निवास करता है, सर्वोपरि कथन है। जब शरीर ही बीमार हो तो मन का बीमार होना आवश्यक है ।अगर मन बीमार तो समाज में आपराधिक गतिविधियां बढ़ेगी जो कि आज हमें दिखाई दे रही हैं ।तो आवश्यक है पर्यावरण के प्रति सचेत दृष्टिकोण व सकारात्मक विचारों का होना।
पर्यावरण का आधार है पेड़-पौधे, हवा, पानी मिट्टी। वन महोत्सव मनाने की परंपरा का शुभारंभ श्री के एम मुंशी ने किया एवं सर्वसाधारण जनता को पेड़ों की उपयोगिता से अवगत करवाया। आदिकाल में आर्य लोग वन के उपयोग को समझते थे। शास्त्रों में आँवला, पीपल आदि अनेक वृक्षों को भगवान का रूप माना गया है। भगवान कृष्ण ने कहा --
अश्वत्थ: सर्ववृक्षाणां अर्थात अर्थात मैं तमाम वृक्षों में पीपल हूँ।
भगत पूरन सिंह ने "प्रकृति प्रतिशोध लेगी" पुस्तक द्वारा लोगों को प्रकृति-प्रेम सिखाने का प्रयास किया ।कवियों में श्रीधर पाठक ने "सीखो" कविता तथा नीलम जैन रचित "प्रतिदिन"कविता प्रकृति-प्रेम प्रदत्त करती है।---
फूलों से नित हंसना सीखो
भौरों से नित गाना
तरु की झुकी डालियों से नित
सीखो शीश झुकाना
महादेवी वर्मा द्वारा रचित "मुरझाया फूल" कविता------ कर दिया मधु और सौरभ
दान सारा एक दिन
किंतु रोता कौन है तेरे लिए दानी सुमन?
सारा साहित्य रचनाकारों की रचनाओं में लिप्त प्रकृति प्रेम प्रकट करने में भरा पड़ा है।
एक अमेरिकी ने कहा कि गांव का वातावरण शहरों की अपेक्षा विशुद्ध है। शहरों के लोगों की अपेक्षा गांव के लोगों की उम्र अधिक होती है। प्रकृति ने पेड़- पौधों के रूप में मनुष्य के लिए अमृत भंडार की रचना की है। अगर प्रकृति का यह अक्षय भंडार ना हो तो मनुष्य जीवित नहीं रह सकेगा। पेड़ पौधों की पत्तियों में एक ऐसा रासायनिक पदार्थ है जिनके सहयोग से गंदी हवा शुद्ध हवा में बदल जाती है। वृक्ष देश की संपत्ति हैं, जिस देश में वृक्षों की जितनी अधिकता होती है वह देश उतना ही संपत्ति शाली, आयुष्मान, बली यशस्वी और तेजस्वी होता है।
पेड़ों का महत्व समझे एवं उनको काटने का प्रयास न करें। वे परम हितैषी हैं और मानव स्वार्थी है। कवयित्री ने कहा है कि--- एक हम हैं कि ठूंठ बनते ही चिंदी चिंदी उड़ा देते हैं, इसके अस्तित्व की.." अपने लाभ के लिए मानव जीवनदायक स्रोत को भी समूल नष्ट करने में प्रयासरत रहता है। "पेड़ लगाना है पेड़ काटना नहीं " यह धारणा प्रत्येक जन के मन में पैदा करने की आवश्यकता है।
सर्वत्र विषैली व स्वार्थयुक्त दुर्गंध पर्यावरण की विनाशक बनी हुई है। कारण है अपने आप को उच्च व दूसरे को हीन मानना। इंसान अपने आप में इतना खो गया है कि उसकी सोच केवल नकारात्मक ही बनकर रह गई है किसी ने क्या खूब कहा है-- "बंद कमरे में मेरा दम घुटता है, खिड़कियां खोलूँ तो जहरीली हवा आती है।"
मानव शरीर को सांस लेने हेतु स्वच्छ हवा चाहिए, पर आज की हवा वैर-विरोध, घृणा, ईर्ष्या नफरत ,जलन, लोभ, काम, क्रोध से भरी हुई है। आज वातावरण में सुगंधित वायु का पर्दापण कैसे होगा?? जरा सोचिए! दूसरों के प्रति मनमुटाव ना रखें ।भाईचारा अपनाये। विश्व बंधुत्व की भावना को साकार करें। फिर देखिए सर्वत्र सुगंधित भावभीनी वायु आपको और आपके पर्यावरण में सुधार करेगी।
कहते हैं जो व्यक्ति प्यासा है वही प्यास और पानी का महत्व जानता है ।रेगिस्तान से आने वाले व्यक्ति को ही पानी की कीमत का अहसास होगा। पानी के बिना जीवन निराधार है। हमारी पृथ्वी का तीन चौथाई हिस्सा पानी है। करीब 0.3 फ़ीसदी जल पीने योग्य है। यह भारी संकट की स्थिति है। पानी न हो तो सब बेकार है।कविवर रहीम जी ने कहा है---- "रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून
पानी गए न ऊबरे मोती मानस चून।"
पानी का प्रयोग एवं उसकी स्वच्छता बनाए रखकर पर्यावरण दिवस की सार्थकता सिद्ध होगी।
अर्थववेद के अनुसार ---धरती हमें माँ के समान सुविधा एवं सुरक्षा देती है। अतः धरती मेरी माँ है और मैं उसका पुत्र हूँ।आज रोग, बीमारियां बढ़ने का कारण मिट्टी से मानव का सरोकार न होना है। एक जमाना था --मिट्टी के घर थे, लिपाई पुताई मिट्टी से होती थी, दवाई के रूप में मिट्टी का प्रयोग अधिक था। श्री गुरु गोविंद सिंह जी ने अपनी कविता "मानस की जात" में कहा है---
एक धूर ते अनेक धूर पूरत है।
धूर ते कनूका फेर धूर ही समाहिगे।"
मिट्टी में ही फिर मिट्टी के कण मिल जाते हैं ।
यह मानव शरीर इसी मिट्टी से बना है, पर अपना मूल भूल कर वह इसके विनाश में लगा हुआ है ।जिसके कारण पर्यावरण का अक्स धुंधला व अस्वच्छ हो रहा है ।यह धरती माँ ही हमें जीवों की सच्ची सेवा का गुण सिखाती है। हमारे देश की धरती सोना उगलने वाली है, हमें यह कदापि नहीं भूलना चाहिए। यदि हम पर्यावरण के इन नैसर्गिक तत्वों के साथ संतुलन बनाकर रखेंगे तो मानव की प्रगति आवश्यक है। अगर मानव खुशहाल होगा तो उसकी मन,उसकी सोच उसका चिंतन भी सकारात्मक तथा आशावादी होगा। यही आशावादी सोच एक देश, राष्ट्र एवं समाज का आधार है जिसकी आज हमारे देश को बहुत जरूरत है। अंत में इसी भावना के साथ---
हरी-भरी हो धरती हमारी, हरे भरे हो वन
धूल धुआँ मुक्त गगन हो, निर्मल जल हो शुद्ध पवन।
पर्यावरण स्वच्छ तो मानव मन स्वच्छ
पर्यावरण हो निर्मल तो "पूर्णिमा"मन हो उज्जवल।
@डॉ.पूर्णिमा राय,
आलोचना पुरस्कार विजेता,
भाषा विभाग पटियाला, पंजाब।
drpurnima01.dpr@gmail.com
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