ए खुदा ,रुक जा ज़रा!

 ए खुदा ,रुक जा ज़रा! By Dr.Purnima Rai


पोस्ट संख्या -69

ए खुदा ,रुक जा ज़रा
माना कि तुझसे सहा न जाये
पृथ्वी का दर्द!
पर इस तरह नाराज़ होना ,
तेरा बरबस बरसना बेइंतहां है !!
ये सृष्टि तेरा ही तो आधार है
पानी जीवन का स्रोत है
भयावह मंजर न दिखा
मृत्यु का भंयकर खेल न खेल!!
सजीव निर्जीव हो रहे हैं आहत
तनिक रहम कर ,
रात भी कटती बेचैन सी,
सुबह भी कचोटती है ,दे रही ज़ख़्म गहरे
क्यों न सुनता हरेक जन  की पुकार
लगता है मेरा खुदा
सच में हो गया है बहरा!!

तू भूल गया था शायद कि
तेरे संसार में ,
अब बचा प्यार नहीं,
आपसी मिलवर्तन नहीं ,
मत परख अपने बनाये जहान को
न ले परीक्षा बार -बार ,
देख ,खोल ले अपने नयन
अश्रु सजीली बूढ़ी आँखों में झांक
तेरी टेक ही है बस उनको
तू यही चाहता था,देख वही हो रहा है,
तेरे बनाये मनुज ही तो
इस वक्त दे रहे सहारा हैं
बस थम जा ,थम जा!!
नज़र हो परखने की
तो इंसान भी भगवान है
निष्काम सेवा ही तो
मानवता की पहचान है !!
डॉ.पूर्णिमा राय, पंजाब
07/09/25



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